रिपोर्ट : अविनाश कुमार
शारदीय नवरात्र को लेकर पूरे बेरमो में श्रद्धा, उत्साह व उमंग का माहौल है। सार्वजनिक दुर्गा मंडपों में आकर्षक व भव्य पंडाल के अलावा विद्युत सज्जा का काम पूरा कर लिया गया है. प. बंगाल से पूजा कराने वाले पंडित पहुंच गये हैं। ढोल-ढाक वाले भी आये हैं. सोमवार को नवरात्रि के पांचवें दिन माता स्कंदमाता की पूजा हुई। मंगलवार की शाम व बुधवार की सुबह पूजा पंडालों में कल्पारंभ व बेलवरण की पूजा होगी। मंगलवार को शाम में नव पत्रिका स्नान व जलयात्रा निकलेगी। इसके बाद देवी का आमंत्रण एवं अधिवास होगा। बेरमो के लगभग सभी पंडालों में प. बंगाल के ही मूर्तिकार प्रतिमाएं बनाते हैं।
नये कपड़े और बड़ों से आशीर्वाद लेने की भी है परंपरा
ग्रामीण क्षेत्रों में लोग इस मौसम का सबसे पहला ग्रामीण फल शकरकंद खाने का भी आनंद लेते हैं। इसके अलावा मनिहारी की दुकानों पर पूजा के अवसर पर ग्रामीण युवतियों व महिलाओं की भीड़ लगती है। गांवों में आज भी दुर्गा पूजा के अवसर पर नया कपड़ा लेने की परंपरा है। विजयादशमी का मेला देख कर लौटने के बाद महिला-पुरुष, बच्चे, युवक- युवतियां घर-घर जाकर बड़ों का पैर छूकर आशीर्वाद लेते थे। विजयादशमी के दिन टेसा राजा पक्षी का दर्शन करना शुभ माना जाता था। इसलिए लोग अहले सुबह से ही टेसा गांवों के लोगों के मिलन का माध्यम भी रहा है। मेला साल एक बार लगने वाला दुर्गा पूजा का मेला लोगों के लिए राजा के दर्शन को आतुर रहते थे। दुर्गा पूजा के मेले में पान भी लोकप्रिय था. गांवों से मेला देखने जाने वाले लोग पान चबा कर मेला देखने का आनंद लेते थे। गांवों के मेले में कई तरह की ग्रामीण मिठाईयां लड्डू, खाजा, बलुशाही, जलेबी, बतौशा, गाजा आदि खूब प्रचलित थी।
षष्ठी से दशमी तक पूजा की धूम
बेरमो, फुसरो, नावाडीह, चंद्रपुरा, कसमार, पेटरवार, गोमिया, खैराचातर, महुआटांड़ के ग्रामीण क्षेत्रों में षष्ठी से लेकर दशमी तक दुर्गा पूजा की धूम रहती है। नावाडीह निवासी खोरठा गायक बासु बिहारी महतो कहते हैं कि अधिकतर ग्रामीण पारंपरिक तरीके से दुर्गा पूजा करते आ रहे हैं। गांवों में दो तरह की पूजा होती है। एक वैष्णवी तथा दूसरा बलि.प्रथा. जिस गांव के सार्वजनिक मंडप में वैष्णवी पूजा होती है वहां प्रतिमा विसर्जन तक लोग मांस-मछली नहीं खाते हैं।
पद्म फूल से बनायी जाती हैं आंखें
ग्रामीण इलाकों में पद्म फूल से मां दुर्गा के आह्वान के लिए छह आंखें बनायी जाती हैं। सभी आंखें अलग-अलग तरह की होती हैं. मां के आह्वान के साथ ही महिलाएं मां दुर्गा की आराधना करते हुए गीत गाती है। इसके अलावा खेत से मिट्टी (दुधिया मिट्टी) लाकर लोग अपने-अपने घरों की पोताई करते हैं। पहले लोग सार्वजनिक रूप से 16 आना का कलश लेकर सार्वजनिक दुर्गा मंडपों में स्थापित करते थे, अभी भी यह परंपरा चली आ रही है।
गांव के लोगों के मिलन का माध्यम भी रहा है मेला
साल में एक बार लगने वाला दुर्गा पूजा मेला लोगों के लिए मिलन का माध्यम था. प्रतिमा दर्शन के बाद बड़े बुजुर्ग एक तरफ तो महिलाएं और बच्चे दूसरी तरफ चर्चा करने में मशगूल दिखते थे। मेलों में खूब चौपाल जमती थी, जो चेहरे मेले में नहीं दिखते थे, उनकी भी खबर लोग लेते थे। एक गांव के ग्रामीणों के दूसरे गांवों के ग्रामीणों के साथ स्थापित मत्रिता, सहिया-फूल संस्कृति, बड़े छोटे के बीच के संबंध का बंधन मेले में भी खास तौर पर दिखता था। मेले में फूहड़बाजी, शरारती तत्वों, मनचलों के लिए कोई जगह नहीं थी। सामाजिक दंड का भय था. खेतों की मेढ़ के बीच बनी पगडंडी से होकर गांव से लेकर मेला स्थल तक लंबी कतार आने-जाने वालों की दिखती थी। कोई संसाधन नहीं होने के बावजूद भी लोग कोसों दूर पैदल चल कर मेला देखने जाते थे। छोटे छोटे बच्चों को कंधे पर लेकर लोग मेला जाते थे।
अब नहीं दिखता परंपरागत नृत्य
ग्रामीण क्षेत्रों में दुर्गा पूजा के अवसर पर गुरु-चेला नृत्य भी आकर्षण का केंद्र रहता है। संताली लोग दुर्गा पूजा में दसाई पर्व मनाते हैं। इस दौरान गुरु- चेला की टोली गांव-गांव घूम कर नृत्य करती है। इसमें 30-40 की संख्या में लोग रहते हैं, यह नृत्य गांव का वर्षों पुराना परंपरागत नृत्य है। इसमें एक गुरु रहता है और उसके एक हाथ में कांसा का कटोरा रहता है, इस कटोरा को वह दूसरे हाथ से लोहा से बजाते है।