रिपोर्ट : विभा पाठक
वर्तमान युग में मनोरंजन का सबसे सस्ता तथा सुगम साधन है”चलचित्र” प्रत्येक व्यक्ति की चाह का मूर्त रूप है चलचित्र। बच्चों को जो विषय मुश्किल एवं नीरस लगते हैं, वही विषय चलचित्रों के माध्यम से आसानी से समझ में आ जाते हैं । प्रौढ़ पुरुषों पर कृषि के नवीन साधनों, नवीन उद्योगों एवं स्वास्थ्य रक्षा के सम्बन्ध में चलचित्रों द्वारा चिरस्थायी प्रभाव डाला जा सकता है ।
फिल्मों से समाज तथा युवा-वर्ग पर अच्छा प्रभाव भी पड़ता है
कुछ फिल्मों से समाज तथा युवा-वर्ग पर अच्छा प्रभाव भी पड़ता है। सामाजिक विषयों से संबंधित फिल्में युवावर्ग में देशभक्ति, राष्ट्रीय एकता और मानव-मूल्यों का प्रसार करती हैं। ऐसी फिल्में जाति-प्रथा, दहेज-प्रथा, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद जैसी सामाजिक कुरीतियों को दूर करने की प्रेरणा देती है।
लेकिन फिल्मों के कुप्रभावों की संख्या ही अधिक है। युवा-वर्ग को हिंसा-प्रधान फिल्ममें ही अच्छी लगती है। आज यदि वे अपने प्रिय नायक-नायिकाओं का पदानुसरण करते हैं, तो इसके लिए पूर्णत: उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। सारा दोष फिल्मों और फिल्म-निर्माताओं का है।
विश्व के सभी देशों में वहाँ की प्रचलित सभ्यता एवं भाषा के आधार पर चलचित्रों का निर्माण होता है, जिनका लक्ष्य राजनीतिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक होता है । भारतवर्ष में प्राय: सभी प्रचलित भाषाओं में चलचित्रों का निर्माण होता है, परन्तु हिन्दी भाषा के चलचित्र सबसे अधिक लोकप्रिय है।
चलचित्रों ने प्रारम्भ मे अच्छे- गायकों, वादकों एवं नायकों को अपनी ओर आकृष्ट किया था । इससे इन कला के धनी व्यक्तियों को पहचान मिलने लगी तथा उनकी रोजी-रोटी भी चलने लगा।
यह व्यवसाय धीरे-धीरे उन्नति की ओर अग्रसर हुआ। इम्पीरियल के पश्चात् कई बड़ी कम्पनियों जैसे न्यू थियेटर ‘रणजीत’ एवं ‘प्रकाश’ आदि भी इस व्यवसाय में आगे आए । निर्देशन के क्षेत्र में राजकपूर, डी शान्ताराम तथा अभिनेता चन्द्रमोहन ने अपना विशेष योगदान दिया। देश में जिस तीव्र गति से चलचित्रों का निर्माण हुआ, उसी तेज गति से सिनेमाघरों का भी निर्माण होने लगा । आज चलचित्र मनोरंजन का सबसे प्रमुख साधन है। सामाजिक चलचित्र, जो समाज की तत्कालीन गतिविधियों पर आधारित होता है तथा जिनमें समाज में प्रचलित विचारधाराएं, अंधविश्वास, कुरीतियाँ आदि प्रस्तुत किए जाते है ।
कुछ चलचित्र पारिवारिक परिपेक्ष्य के इर्द-गिर्द घूमते हैं।
इनका व्यापक दृष्टिकोण पारिवारिक समस्याओं तथा आपसी रिश्तों का चित्रण करना होता है।
मानव जीवन में चलचित्रों का महत्त्व-चलचित्र शिक्षा एवं मनोरंजन दोनों लक्ष्यों की पूर्ति करने में सहायक है । देश की जिन सामाजिक प्रथाओं, कुरीतियों, अच्छा-ज्यों, बुराइयों, प्राचीन संस्कृतियों आदि के बारे मे हमने केवल पड़ा है या- किसी बुजुर्ग से सुना है।
आज हम उनके बारे में देख सकते है
आज के निर्माता-निर्देशक एक कदम और आगे की सोचकर महत्वपूर्ण घटनाओं तथा महत्वपूर्ण व्यक्तियों के जीवन-चरित्र आदि पर भी फिल्मे बना देते हैं । भारत-पाक युद्ध के दृश्य, राष्ट्रपति की विदेश यात्रा या फिर गाँधी जी, नेहरू जो के जीवन पर आधारित । फिल्में बन रही है, जिनसे हम उस समय की भी भरपूर जानकारी प्राप्त हो रही है, जब हम पैदा भी नहीं हुए थे या फिर हम उस समय तहाँ नहीं हे । आज हम अपनी दिन- भर की थकान के पश्चात् बड़ी सुगमता से काव्य, संगीत, चित्र तथा अभिनय जैसी उपयोगी कलाओं का चलचित्रों के माध्यम सम्पूर्ण ज्ञान भी प्राप्त कर रहे है तथा मनोरंजन भी कर रहे है । शिक्षा के क्षेत्र में तो चलाचित्रों का महत्त्व अभूतपूर्व है। प्रौढ़ शिक्षा तथा अल्पव्यस्क छात्रों की शिक्षा के लिए चलचित्रों का माध्यम अत्यन्त सराहनीय है । अनेक गूढ़ तथा जटिल विषयों को चलचित्र के माध्यम से विद्यार्थी सुगमता से समझ लेते है क्योंकि जो बात सुनकर या पढ़कर समझ में नहीं आती उसे अपनी आँखों से देखकर बड़ी आसानी से समझा जा सकता है।
सेना-सम्बन्धी चित्रों को देखने से जहाँ नवयुवकों में देश सेवा का भाव जागृत होता है वही ‘एड्स’ जैसी खतरनाक बीमारियों के बारे में चित्र देखकर उनमें जागरुकता आती है साथ ही उन्हें उस बीमारी के विषय में भी पता चलता है । सामाजिक सुधार की दृष्टि से भी इन चलचित्रों का कम महत्व नहीं है । बाल-विवाह, बेमेल-विवाह, बाल-श्रम, सती-प्रथा जैसी कुरीतियों का जो अन्त हमारे समाज सुधारक अपने सहस्रों भाषणों द्वारा नहीं कर पाए वह कार्य चलचित्रों ने कर दिखाया है ।
कई चलचित्र दहेज-प्रथा का भद्दा पहलू चित्रित कर चुके हैं तो कई चलचित्र दहेज-प्रथा, बाल-विवाह आदि को समूल नष्ट करने का प्रयत्न कर रहे हैं ।
मानव जीवन में चलचित्र की हानियाँ
चलचित्रों के माध्यम से जहाँ समाज इतना लाभान्वित हो रहा है, वहीं इससे होने वाले हानियों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है । शिक्षाप्रद चलचित्र का निर्माण सस्ते मनोरंजन की तुलना में कम ही होता है । आज के निर्माता निर्देशक मजदूरों आदि को ध्यान में रखकर फिल्ममें बनाते हैं क्योंकि वे फिल्मके ही चलती हैं जिनमें कामोतेजक नृत्य तथा अश्लील दृश्य होते हैं ।
आज समाज में नए-नए फैशन का रोग फैल रहा है । युवा वर्ग भी उसी भद्दे फैशन का उनुसरण करता है, वह भी फिल्म के हीरों की भाँति अपनी मनपसन्द लड़की को हासिल करना चाहता है, रातोरात धनवान बनना चाहता है, सुख-सुविधाएँ चाहता है ।
वह यह भूल जाता है कि वास्तविकता तथा फिल्मों में जमीन-आसमान का अन्तर होता है । ये चलचित्र ही आज की युवा पीढ़ी को पथभ्रष्ट कर रहे हैं । चोरी, अपहरण, बलात्कार, हत्याओं के नए-नए तरीके जो फिल्मों में दिखाए जाते हैं, वही आज का युवा वर्ग वास्तविक जिन्दगी में अपना रहा है ।
वास्तव में आज जो अनुशासनहीनता तथा अपराधीकरण का वातावरण दिखाई पड़ रहा है, वह आधुनिक चलचित्रों की ही देन है। यदि फिल्म निर्माता केवल स्वार्थी न होकर जन-कल्याण के लिए शिक्षाप्रद फिल्में बनाए तो चलचित्रों से अच्छा मनोरंजन एवं शिक्षा का दूसरा कोई माध्यम नहीं है। हमारा भी यह कर्त्तव्य बनता है कि हम अधिक फिल्मसे न देखकर कुछ चुनिन्दा तथा अच्छी एवं ज्ञानवर्धक फिल्में ही देखें, जिससे हमारा मनोरंजन भी होगा तथा ज्ञानवर्धन भी । यदि चलचित्रों की कुछ हानियों को नजरअन्दाज कर दिया जाए तो इसके लाभ ही लाभ हैं ।