शनिवार से दो दिनी पलामू किला मेले की शुरुआत हो गई। उल्लेखनीय है कि प्रत्येक वर्ष ऐतिहासिक चेरोवंश के सर्वाधिक लोकप्रिय राजा मेदिनीराय की याद में छठ के पारण के दूसरे दिन से पलामू किला परिसर में दो दिनी मेला लगाया जाता है। इसमें पहले दिन मेलाटांड़ से लेकर नया और पुराना पलामू किला समेत कमलदह झील परिसर में हजारों की संख्या में लोग शामिल हुए। भीड़ का आलम यह था कि कमलदह झील मोड़ के पास वाहन तो दूर लोगों का पैदल भी सड़क पार करना मुश्किल था।दूसरी तरफ सतबरवा से किला मेला परिसर जानेवाले रास्ते में भी छोटे वाहनों और दो पहिया वाहनों का तांता लगा रहा।जगह जगह प्रशासनिक व्यवस्था देखी गई। व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस के जवान मुस्तैद दिखे।
वहीं दूसरी ओर भीड़ को नियंत्रित करने के लिए वन विभाग और बरवाडीह पुलिस व सतबरवा पुलिस को कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। लोगों ने नये व पुराने दोनों किले का दीदार किया। इस मेले में पलामू की प्रसिद्ध मिठाई लकठो, गटउरी, घरेलू उद्योग निर्मित बरछी, तलवार, गंड़ासा, टांगी, ताई, हंसुआ, कड़ाही, कटार, छोलनी कचरी आदि की खरीदारी लोगों ने जमकर की। वहीं सुबह से देर रात तक बेतला-किला मार्ग पर विभिन्न वाहनों से आने-जाने वाले दर्शकों का तांता लगा रहा।
बताते चलें कि प्रत्येक वर्ष चेरोवंश के सर्वाधिक लोकप्रिय और आदर्श राजा मेदिनीराय की याद में छठ महापर्व के पारण के दूसरे दिन प्रत्येक वर्ष औरंगानदी के तट स्थित फुलवरिया टांड़ में पलामू किला में मेले का आयोजन किया जाता है। राजा मेदिनीराय परम गोभक्त और भगवान सूर्य के उपासक थे। प्रत्येक वर्ष छठ महाव्रत संपन्न करने के दूसरे दिन राजा अपनी कुलदेवी मां दुर्जागीन और चेंड़ी की पूजा करने के उपरांत औरंगानदी तट के मेला टांड़ स्थित प्राचीन शिव मंदिर में महादेव नीलकंठ का दर्शन करते थे।
इसके बाद वहां सार्वजनिक रूप से अपनी प्रजा से मिलकर उनकी समस्याओं से रूबरू होते थे। उस दिन राजा से मिलने के लिए मेलाटांड़ में लोगों का जमावड़ा लगा रहता था। राजा का प्रजा के साथ वार्षिक मिलन की परंपरा कालांतर में मेले के रूप में तब्दील हो गई जो कि आज भी ऐतिहासिक पलामू किला मेला के नाम से विख्यात है।