Bollywood He-Man to Parliament Hero: बॉलीवुड के महान अभिनेता धर्मेंद्र (Dharmendra Deol) अब हमारे बीच नहीं रहे। 89 वर्ष की उम्र में मुंबई (Mumbai) के ब्रीच कैंडी अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली। पर्दे पर अपनी दमदार मौजूदगी और ‘ही-मैन’ वाली पहचान के लिए मशहूर धर्मेंद्र का जीवन जितना फिल्मी था, उतना ही फिल्मी उनका राजनीतिक सफर भी रहा। 2004 के लोकसभा चुनावों में उनकी एंट्री ने भारतीय राजनीति को अप्रत्याशित ग्लैमर और रोमांच दोनों दिए। चुनावी मंचों पर उनका एक बयान “अगर सरकार मेरी बात नहीं मानेगी तो मैं संसद की छत से छलांग लगा दूंगा” आज भी याद किया जाता है, जिसने चुनावी माहौल में हलचल मचा दी थी। लेकिन क्या राजनीति में शोले वाला वही दम उनके काम आया? क्या उनके राजनीतिक करियर का अंत भी किसी फिल्मी ट्विस्ट की तरह हुआ? चलिए जानते हैं….
धर्मेंद्र का राजनीतिक अध्याय/Bollywood He-Man to Parliament Hero
2004 का लोकसभा चुनाव भारतीय राजनीति और बॉलीवुड के लिए खास मोड़ लेकर आया। बीजेपी (BJP) उस समय अपने ‘शाइनिंग इंडिया’ कैंपेन को जोर-शोर से आगे बढ़ा रही थी। इसी कैंपेन के प्रभाव में धर्मेंद्र देओल राजनीति में कदम रखने के लिए तैयार हुए। शत्रुघ्न सिन्हा (Shatrughan Sinha) और लालकृष्ण आडवाणी (LK Advani) के साथ मुलाकात के बाद बीजेपी ने उन्हें राजस्थान (Rajasthan) की बीकानेर (Bikaner) सीट से उम्मीदवार बनाया। उनकी लोकप्रियता इतनी जबरदस्त थी कि उन्होंने कांग्रेस प्रत्याशी रमेश्वर लाल डूडी (Rameshwar Lal Dudi) को लगभग 60 हजार वोटों से हरा दिया। जीत के बाद बीकानेर की जनता को उम्मीद थी कि उनका सांस्कृतिक सितारा अब एक प्रभावी नेता के रूप में चमकेगा। लेकिन असल कहानी यहीं से शुरू हुई जहाँ उम्मीदें और हकीकत का टकराव साफ दिखने लगा।

‘संसद की छत से कूद जाऊंगा’
धर्मेंद्र का चुनाव प्रचार उनके फिल्मी करियर की तरह ऊर्जावान और संवादों से भरा रहा। वे मंचों पर भी उसी जोश में नजर आए जैसे ‘शोले’ (Sholay) के वीरू के रूप में दिखते थे। इसी दौरान उनका बयान- “अगर सरकार मेरी बात नहीं मानेगी तो मैं संसद की छत से छलांग लगा दूंगा” देशभर में सुर्खियों में आ गया। इस फिल्मी चेतावनी ने समर्थकों में गजब का उत्साह पैदा किया और विरोधियों में हलचल मचा दी। हालांकि यह बयान महज जोश का हिस्सा था, लेकिन इसने राजनीति की गंभीरता पर बहस भी छेड़ दी। धर्मेंद्र (Dharmendra) ने चुनावों को फिल्मों की तरह लड़ने की कोशिश की और जनता ने भी उसी अंदाज में उन्हें स्वीकार किया। पर जीत के बाद आने वाली जिम्मेदारियों और जमीनी राजनीति की जटिलताओं ने उन्हें धीरे-धीरे थका दिया।
जीत के बाद आरोपों की बौछार
लोकसभा पहुंचने के बाद धर्मेंद्र का राजनीतिक सफर उनकी उम्मीदों के उलट जाता दिखा। बीकानेर से आए कई शिकायतों ने उन्हें कठघरे में खड़ा कर दिया। आरोप लगे कि धर्मेंद्र जनता से मिलने कम जाते थे, स्थानीय समस्याओं पर उनकी पकड़ कमजोर थी और वे ज्यादातर समय फिल्मों की शूटिंग या मुंबई स्थित फार्महाउस में बिताते थे। संसद (Parliament) में उनकी उपस्थिति बेहद कम रही, जिससे उनकी छवि ‘निष्क्रिय सांसद’ की बन गई। कुछ समर्थकों का यह दावा जरूर था कि वे दिखाई भले कम देते हों, पर काम करवाते थे, फिर भी जनता का भरोसा कमजोर पड़ता गया। बीकानेर के लोग धीरे-धीरे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि स्क्रीन पर वीरू जितने सक्रिय धर्मेंद्र, राजनीति के मंच पर उतने ही शांत दिखे।
क्यों छोड़ दिया सियासत का मैदान
2009 में अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद धर्मेंद्र ने राजनीति से दूरी बना ली। उन्होंने फिर कभी चुनाव न लड़ने का फैसला किया। बाद में एक इंटरव्यू में उन्होंने साफ कहा कि “राजनीति मेरे लिए नहीं थी… मैं काम करता रहा, लेकिन क्रेडिट कोई और ले जाता था।” यह बयान उनके भीतर की निराशा को उजागर करता है। उनके बेटे सनी देओल (Sunny Deol), जो बाद में खुद सांसद बने, ने भी स्वीकार किया कि धर्मेंद्र को राजनीति पसंद नहीं आई और उन्हें चुनाव लड़ने का पछतावा रहा। धर्मेंद्र का राजनीतिक अध्याय भले छोटा रहा हो, लेकिन उसमें ड्रामा, उत्साह और भावनाओं की कमी नहीं थी। जैसे उनकी फिल्में यादगार रहीं, वैसे ही राजनीति में दिया गया उनका बयान आज भी भारतीय चुनाव इतिहास का अनोखा किस्सा माना जाता है।










