Afghan Pak Clash Tests Saudi Ties: अफगानिस्तान और पाकिस्तान (Afghanistan and Pakistan) के बीच सीमा पर हाल के दिनों में झड़पें बढ़ गई हैं, जिससे क्षेत्रीय सुरक्षा को लेकर अंतरराष्ट्रीय चिंता बढ़ गई है। पाकिस्तानी और अफगान सैनिकों के बीच हुई टकराहटों में कई सैनिक मारे गए और उपकरण भी कब्जे में गए। इस बीच सवाल उठता है कि क्या सऊदी अरब (Saudi Arabia), जो हाल ही में पाकिस्तान (Pakistan) के साथ एक रणनीतिक रक्षा समझौते में बंधा है, इस विवाद में हस्तक्षेप करेगा। हालांकि, सऊदी की विदेश नीति और आर्थिक प्राथमिकताएं सीधे युद्ध में एंट्री की संभावना को सीमित करती हैं। राजनीतिक और सैन्य विश्लेषक इसे NATO जैसी डील का लिटमस टेस्ट भी मान रहे हैं। इस रिपोर्ट में हम विस्तार से देखेंगे कि सऊदी किस हद तक पाकिस्तान का समर्थन कर सकता है और किन कारणों से वह संघर्ष में सीधे नहीं उतर सकता।
पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर झड़पें/Afghan Pak Clash Tests Saudi Ties
अफगानिस्तान और पाकिस्तान (Afghanistan and Pakistan) के बीच सीमा पर हाल के दिनों में लगातार टकराव हो रहे हैं। रिपोर्ट्स के अनुसार, पाकिस्तानी सैनिकों पर अफगान हमले में 12 सैनिक मारे गए और कई घायल हुए। इसके अलावा पाकिस्तान के एक टैंक को भी कब्जे में ले लिया गया। पाकिस्तान के कई शहरों जैसे काबुल, खोस्त, जलालाबाद और पक्तिका पर हमले का जवाब देते हुए अफगान सेना ने ताबड़तोड़ कार्रवाई की। दोनों देशों के बीच झड़पें कई मोर्चों पर फैल गई हैं और जल्द शांत होने की संभावना कम लगती है। इस द्विपक्षीय तनाव ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी सतर्क कर दिया है और कतर, ईरान और सऊदी अरब ने संयम बरतने की अपील की है।

सऊदी-पाकिस्तान रणनीतिक समझौता
सितंबर 2025 में सऊदी अरब और पाकिस्तान (Saudi Arabia and Pakistan) के बीच एक रणनीतिक रक्षा समझौता हुआ। इसके तहत, किसी भी देश पर हमला होने को दूसरे पर हमला माना जाएगा। हालांकि, विश्लेषकों के अनुसार यह समझौता NATO के आर्टिकल 5 जैसी पूर्ण प्रतिरक्षा डील नहीं है। इसमें ‘कैवेट क्लॉज़’ (Caveat Clause) है और यह स्पष्ट नहीं करता कि किन परिस्थितियों में रक्षा कार्रवाई की जाएगी। सऊदी की विदेश नीति पिछले कुछ वर्षों में ‘शून्य समस्या’ और क्षेत्रीय स्थिरता पर केंद्रित रही है। इसलिए यह समझौता ज्यादातर राजनीतिक और रणनीतिक एकजुटता का संकेत माना जा रहा है।
सऊदी अरब की प्राथमिकताएं
सऊदी अरब (Saudi Arabia) इन दिनों अपनी आर्थिक योजनाओं, विशेषकर विज़न 2030 पर फोकस कर रहा है। तेल के अलावा अन्य सेक्टरों में निवेश और विदेशी निवेश आकर्षित करना उसकी प्राथमिकता है। इसलिए सीधे सैन्य हस्तक्षेप में शामिल होना इसके मिशन के लिए हानिकारक हो सकता है। यमन में लंबे और महंगे सैन्य अभियान से सऊदी नेतृत्व को सबक मिला है कि संघर्ष में सीधे उतरना लाभकारी नहीं होता। साथ ही, ईरान के साथ नाजुक संतुलन को बनाए रखना भी सऊदी के लिए जरूरी है। इन कारणों से पाकिस्तान-अफगान संघर्ष में सीधे सैनिक भेजने की संभावना कम मानी जा रही है।
सऊदी की संभावित भूमिका
सऊदी अरब (Saudi Arabia) इस विवाद में सीधे हस्तक्षेप नहीं कर रहा, लेकिन मध्यस्थ और आर्थिक सहायक की भूमिका निभा सकता है। उसने दोनों देशों से संयम बरतने का आह्वान किया है। पाकिस्तान की आर्थिक अस्थिरता और सुरक्षा चिंताओं को देखते हुए सऊदी आर्थिक सहायता, वित्तीय पैकेज और रक्षा उपकरण के माध्यम से मदद कर सकता है। राजनयिक वार्ता और डी-एस्केलेशन के जरिए सऊदी पाकिस्तान को समर्थन दे सकता है, लेकिन सीधा युद्ध में उतरना फिलहाल अपेक्षित नहीं है।
NATO जैसी डील का लिटमस टेस्ट
सऊदी-पाक रणनीतिक समझौते को NATO मॉडल के समान समझा जा रहा है। NATO में आर्टिकल 5 स्पष्ट रूप से कहता है कि एक सदस्य पर हमला पूरे संगठन पर हमला माना जाएगा। वहीं, सऊदी-पाक समझौते में यह स्पष्ट नहीं है कि किन हमलों पर दोनों देश एक-दूसरे के लिए कार्रवाई करेंगे। यह समझौता राजनीतिक एकजुटता का संकेत है और फिलहाल वास्तविक युद्ध परीक्षण नहीं हुआ है। आने वाले दिनों में यह देखा जाएगा कि क्या सऊदी अपने मित्र पाकिस्तान के लिए सक्रिय भूमिका निभाएगा या केवल मध्यस्थता और आर्थिक सहयोग तक सीमित रहेगा।










