Ramgarh Gears Up For Sohrai Chanchhar: झारखंड की सांस्कृतिक धरोहरों में से एक “सोहराय पर्व” (Sohrai Chanchhar) अब सिर्फ एक त्यौहार नहीं, बल्कि अपनी जड़ों से जुड़े रहने का प्रतीक बन गया है। इसी भावना को जीवंत रखने के लिए रामगढ़ जिला के कोठार स्थित सरना आवासीय उच्च विद्यालय में एक विशेष बैठक आयोजित की गई, जिसमें कई प्रखंडों के बुद्धिजीवी, समाजसेवी और आदिवासी समुदाय के सदस्य शामिल हुए। इस बैठक का उद्देश्य केवल पर्व की तैयारियों तक सीमित नहीं था, बल्कि नई पीढ़ी में अपनी पारंपरिक पहचान के प्रति जागरूकता पैदा करना भी था। क्या है इस बैठक का महत्व और कैसे मनाया जाएगा इस वर्ष का सोहराय चांचर, आइए जानते हैं विस्तार से ।
सोहराय चांचर: परंपरा और पहचान का पर्व/Ramgarh Gears Up For Sohrai Chanchhar
सोहराय पर्व (Sohrai Chanchhar) झारखंड, बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में मनाया जाने वाला एक प्रमुख आदिवासी त्यौहार है। यह न केवल फसल कटाई का पर्व है बल्कि पशु सम्मान का भी प्रतीक माना जाता है। इस उत्सव में महिलाएँ अपने घरों की दीवारों पर प्राकृतिक रंगों से सोहराय चित्रकला करती हैं, जो समाज की सौंदर्यता और आस्था को दर्शाती है। संथाल, मुंडा, उरांव और कुड़मी समुदाय इस पर्व को उत्साह और एकजुटता के साथ मनाते हैं। इसे आदिवासी जीवन की संस्कृति, संगीत और प्रकृति के प्रति आदर के रूप में देखा जाता है।

कोठार में हुई बैठक संस्कृति संरक्षण का संदेश
रामगढ़ (Ramgarh) जिले के कोठार स्थित सरना आवासीय उच्च विद्यालय में वृहद झारखंड कला संस्कृति मंच के बैनर तले बैठक का आयोजन हुआ। बैठक की अध्यक्षता रेवालाल महतो (Rewalal Mahat) ने की जबकि संचालन ओमप्रकाश महतो ने किया। बैठक में इस वर्ष 18 अक्टूबर 2025, शनिवार को सोहराय चांचर और बरदखूंटा उत्सव को भव्य रूप से मनाने की योजना पर चर्चा की गई। प्रतिभागियों ने इस बात पर चिंता जताई कि बाहरी परंपराएँ धीरे-धीरे आदिवासी रीति-रिवाजों को समाप्त कर रही हैं, ऐसे में सोहराय पर्व का संरक्षण समय की आवश्यकता बन गया है।
पारंपरिक रीति-रिवाज और पूजा विधि

सोहराय उत्सव (Sohrai Festival) में मुख्य रूप से गोहाल, हल, जुआठा, बैल और धान की पूजा की जाती है। यह पूजा प्रकृति और कृषि के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक मानी जाती है। पूजा के दौरान पारंपरिक गीत, नृत्य और सामूहिक भोजन का आयोजन किया जाता है। घरों की दीवारों पर बनाई जाने वाली सोहराय कला समाज की सांस्कृतिक गहराई को उजागर करती है। यह पर्व आदिवासी समाज के उस भाव को भी दर्शाता है जिसमें मनुष्य और पशु के बीच गहरा संबंध और परस्पर सम्मान निहित है।
समाज की चेतावनी और नई दिशा की पहल

बैठक में उपस्थित बुद्धिजीवियों ने चिंता व्यक्त की कि आधुनिकता और बाहरी प्रभावों के कारण नई पीढ़ी अपनी संस्कृति से दूर होती जा रही है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि अगर परंपराओं को जीवित रखना है, तो उन्हें आधुनिक संदर्भों में प्रस्तुत करने की जरूरत है। सोहराय चांचर केवल पूजा या आयोजन नहीं, बल्कि सामाजिक एकता का प्रतीक है। इस पहल के माध्यम से आयोजक आने वाली पीढ़ियों को अपने इतिहास, कला और संस्कृति से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं ताकि यह विरासत सदैव जीवित रहे।
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