6 फरवरी 1984 शाम के पाँच बज रहे थे, पटना के कंकड़बाग में गोलियों की तड़तड़ाहट की आवाज़ से लोग सन्न थे। सामंतों की भूमिसेना ने ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाई थी। वह गोलीकांड जो पटना के इतिहास में सबसे चर्चित हत्याकांड के रूप में दर्ज हो गई। इतिहास में दर्ज होना लाजिमी भी था, क्योंकि आतताइयों की गोलियों ने एकीकृत बिहार की एक ऐसी आवाज़ को हमेशा के लिए ख़ामोश कर दिया। जिससे पूँजीवादी और सामंती ताकतें काँपने लगी थी। जिससे सरकारें घबड़ाने लगी थी। जिस आवाज़ से बिहार के हर कॉलेज और यूनिवर्सिटी गूँज उठा था। जिस आवाज़ से बिहार के न केवल छात्र -युवा शक्ति बल्कि मजदूर किसान भी लामबंद होने लगे थे। जिस आवाज़ ने पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण और अत्याचार के ख़िलाफ़ हल्ला बोल दिया था। ये आवाज़ थी प्रेमचंद सिन्हा की. आज उसी प्रेमचंद सिन्हा का शहादत दिवस है।
प्रेमचंद सिन्हा कौन थे?
प्रेमचन्द सिन्हा 1980 से ही पटना विश्वविद्यालय के निर्वाचित महासचिव थे साथ ही देश भर में उस समय चल रहे राष्ट्रीयता के आन्दोलनों में छात्र-यूवा शक्ति को जोड़ने की गर्ज से निर्मित छात्र मुक्ति मोर्चा (स्टूडेंट लिबरेशन फ्रंट ) के संस्थापक संयोजक थे। 6 फरवरी 1984 को प्रेमचंद सिन्हा की पटना के कंकडबाग मे आताताईयों ने गोली मार कर नृशंस हत्या कर दी थी। प्रेमचंद सिन्हा का जन्म 15 अगस्त 1958 को पटना जिला अन्तर्गत फतुहा ब्लोक के भेडगांवा ग्राम में एक मध्यम वर्गीय किसान परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम बाबुलाल सिन्हा था। शहीद प्रेमचंद सिन्हा सही मायनें में युवाओं के प्रेरणास्रोत और आदर्श व्यक्तित्व के धनी थे, उन्हें उनके ओजस्वी विचारों और जुझारू आंदोलनों के कारण ही जाना जाता है। वे युवाओं को भारतीय नवजागरण का अग्रदूत कहे करते थे। प्रेमचंद सिन्हा ने अस्सी के दशक में एकीकृत बिहार के शिक्षण संस्थाओ में अराजकता के खिलाफ बड़े बड़े आंदोलनों का नेतृत्व किया। उन दिनों देशभर में अलग राज्य के आंदोलनों को मजबूत बनाने के लिए प्रेमचंद सिन्हा ने छात्रों युवाओं को लामबंद करने की रणनीति बनाई थी। यही वजह थी, कि झामुमो के संस्थापक नेताओं ने छात्र मुक्ति मोर्चा के निर्माण में भूमिका निभाई। कहा जाता है, कि झामुमो के ऊदयकाल से ही इसके शीर्षस्थ नेतागण झारखंड अलग राज्य आंदोलन में छात्र युवा शक्ति को जोड़ने की जरूरत महसुस करने लगे थे। नेताओं के अथक प्रयास के बावजूद सात-आठ बर्षों तक झारखंड आंदोलन की गति अपेक्षाकृत तेज नहीं हो पाई तो झामुमो के शीर्षस्थ नेतागण ज्यादा चिंतित हुए। कॉमरेड एके रॉय, विनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन ने चिंतन मंथन कर यह निष्कर्ष निकाला कि झारखंड आंदोलन को एक नया आवेग देने के लिए छात्र युवा शक्ति को जोड़ना है। तब बिनोद बाबू ने “पढ़ो और लड़ो” का नारा को बुलंद किया। उस समय तेजतर्रार छात्र नेताओं में से पटना यूनिवर्सिटी छात्र संघ के महासचिव प्रेमचंद सिन्हा , काशीनाथ केवट, सीए कुमार आदि झारखंड के छात्र युवा शक्ति को संगठित करने की जिम्मेवारी सौंपी गई। फ़िर एक प्रक्रिया में 1980 में “छात्र मुक्ति मोर्चा ” का गठन हुआ. झामुमो विधायक कृपाशंकर चटर्जी के पटना स्थित विधायक आवास को इस संगठन का कार्यालय बनाया गया।
प्रेमचन्द सिन्हा का जन्म 15 अगस्त 1958 को हुआ था। वे बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। झारखंड अलग राज्य आंदोलन में छात्र युवा शक्ति को जोडने के लिए छात्र मुक्ति मोर्चा ने पूरी ताकत लगा दी थी। इनकी कोशिशों का नतीजा रहा कि झारखंड आंदोलन में छात्रों युवाओं का जुड़ाव हुआ और छात्र मुक्ति मोर्चा का गठन हुआ था। झारखंड अलग राज्य आंदोलन में शहीद सिन्हा के अतुलनीय योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। शैक्षणिक अराजकता के खिलाफ आंदोलन-अस्सी के दशक में पूरे राज्य के शिक्षण संस्थाओ में शैक्षणिक अराजकता का महौल था। इस अराजकता के खिलाफ एकीकृत बिहार के छात्रों ने प्रेमचन्द सिन्हा के नेतृत्व में तकरीबन सभी शिक्षण संस्थाओ में आंदोलन किया था, तब उस समय आंदोलनों में राजकीय दमनचक्र भी चल पड़ा था। राज्य के रक्सोल, पकडीदयाल, हनवारा, मुजफ्फरपुर एंव राँची समेत अनेकों स्थानों पर आंदोलित छात्रों पर गोलियां चलाई गई थी, तो कहीं लाठी चार्ज व अश्रु गैस से हमले किये गये थे। इस दौरान कई छात्र मारे भी गये थे। इस राजकीय दमन और शैक्षणिक अराजकता के खिलाफ प्रेमचंद सिन्हा की पहल पर सभी वामपंथी जनवादी छात्र संगठनों ने मिलकर” बिहार राज्य छात्र संघर्ष मोर्चा ” का निर्माण किया था। इसके संयोजक प्रेमचंद सिन्हा ही थे। उस समय उनके नेतृत्व में छात्रों- युवाओं की बड़ी लामबंदी हुई थी। पूरे प्रदेश के छात्र- यूवा उद्वेलित हो उठा था। अब आंदोलन क़ो एक दीर्घकालीन स्थायित्व देने की गरज से एक जनवादी दिशा में मोड़ने के लिए नेतागण चिंतन कर रहे थे, क्योंकि उनके सामने 74 के छात्र आंदोलनों की खामियों से सबक लेकर आंदोलनात्मक गतिविधियों को आगे ले जाने का कार्यभार था।
बहुआयामी व्यक्तिव के धनी थे प्रेमचंद-प्रेमचंद सिन्हा को छात्र राजनीति के साथ साथ आम अवाम के बीच जनगोलबन्दी को सार्थक आयाम देने के निमित्त शोषितों, मजदूरों किसानों अल्पसंख्यकों नौजवानों व संस्कृतिकर्मियों को उनकी जरूरतों के अनुरूप व्यापक आन्दोलन संगठित व संयोजित करने की दिशा में एक स्तर की सफलता भी मिली थी। इसी वजह से प्रेमचंद सिन्हा पूजीपतियों और सामंती ताक़तों के आँखो की किरकिरी बन गए थे औऱ अंततः वही हुआ जो मानव भक्षी व्यवस्था द्वारा सच्चे रहनुमाओं के साथ किया जाता हैं। भूमिपतियों के आतताइयों ने प्रेमचंद सिन्हा की 6 फरवरी 1984 को पटना के कंकडबाग मे गोली मार कर कायराना ढंग से हत्या कर दी औऱ छात्रों नौजवानों, मजदूरों किसानों के बीच से उन्हें सदा के लिए छीन लिया गया था। उनके सहयोगी काशीनाथ केवट कहते हैं, कि हम शहीद प्रेमचंद सिन्हा को नहीं भूल सकते, विद्यार्थी जीवन में हमलोगों ने छात्र मुक्ति मोर्चा की स्थापना कर छात्र युवा ताकतों को झारखंड अलग राज्य आंदोलन को मजबूत बनाया था। झारखंड में छात्र मुक्ति मोर्चा के मुहिम को शिबू सोरेन, कॉमरेड ए के रॉय एव बिनोद बिहारी महतो जैसे नेताओं का भरपूर सहयोग व सानिध्य मिला था। उस समय झारखंड आंदोलन में छात्र यूवा शक्ति को जोड़ने में बड़ी सफलता मिली थी। आज़ झारखंड राज्य के गठन हुए 23 साल बीत गए लेकिन अलग झारखंड आंदोलन के मूल में जो मकसद और मुद्दे थे। झारखंडी जनता की जो आकांक्षाएं थी, हजारों शहीदों के जो अरमान थे, जिसपर पूर्व की सरकारों ने सिर्फ तुषारापात ही किया है। झारखंड के शहीदों और आंदोलनकारियों को उचित सम्मान आज भी नहीं मिल पाया है। सूबे में जनसमस्याओं का पहाड़ खडा़ हो गया है। बेरोजगारी, भुखमरी, विस्थापन और पलायन सुरसा के मुँह की तरह फैलती जा रही हैं। नदी नालों का अतिक्रमण हो रहा है और उत्खनन कंपनियां जंगल पहाड़ का सत्यानाश कर रही है। भूख की ज्वाला मिटाने के लिए झारखंडी कोयला खदानों में अपनी जाने गंवा रहे हैं। झारखंडियों की अलग राज्य में पर्याप्त रोजगार, जल जंगल जमीन की रक्षा और झारखंड में उपलब्ध मानवीय और प्राकृतिक संसाधनो का उपयोग कर झारखंडियों के जीवन को खुशहाल बनाने की आकांक्षाएं अब धूमिल होने लगी है। ऐसे में सवाल है कि झारखंडी शहीदों के अरमानों को मंजिल मिल पाएगा, यह एक यक्ष प्रश्न बन गया है। बहरहाल, आज पूरे भारत के तमाम विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति की वस्तुस्थिति यह है, कि उनका अस्तित्व तो है, लेकिन उसमें वैसी धार नज़र नहीं आती जैसी पहले देखने को मिलती थी। बिहार की छात्र राजनीति का गौरवशाली अतीत रहा है, लेकिन मौजूदा दौर के छात्र संगठनों की पहचान महज सियासी दलों की अनुषंगी इकाई से ज्यादा कुछ नहीं है। ऐसे में अपना समस्त जीवन देश के लिए न्यौछावर करने वाले क्रांतिकारी युवाओं की जीवन गाथाओं को भूल रहे हैं और हम सब धीरे-धीरे भ्रष्ट तंत्र का हिस्सा बनते जा रहे हैं। ऐसे समय में शहीद प्रेमचंद सिन्हा की जीवनगाथा एक निश्चित ही एक नई रोशनी दिखाएगी।